छोटे छोटे सवाल –२८
हर नए आदमी की तरह सत्यव्रत पर भी इस शोहरत का प्रभाव पड़ा था और उस शाम वह वहाँ दूध पीने के लिए चला आया था। यद्यपि स्वभावतः वह बाहर जाकर होटलों या ढाबों में खाना नहीं खाता, और जहाँ हाथ से भोजन बनाने की सुविधा नहीं होती वहां वह केवल दूध और केलों पर ही गुजर कर लिया करता है। पर राजपुर में, दो बजे इंटरव्यू खत्म होने के बाद, न उसे केले मिले थे और न दूध। यों भी जिन हलवाइयों की दुकान पर वह गया था वहाँ उनकी गन्दगी देखकर उसके मन में भारी अरुचि पैदा हो गई थी और उसने निश्चय किया था कि इन दुकानों पर कुछ खाने की बजाय वह तब तक व्रत रखना पसन्द करेगा जब तक खाने-पीने की कोई समुचित व्यवस्था न हो जाए। पर गूँगे की दुकान पर आकर उसने अपना निश्चय बदल दिया।
भूख जीवन का कितना ही बड़ा सत्य क्यों न हो किन्तु और सत्यों की भांति थोड़े समय के लिए उसे भी दबाया और कुचला जा सकता है। सत्यव्रत भी भूख को मारकर शाम होते ही आर्यसमाज मन्दिर की अपनी कोठरी से निकलकर शहर में घूमने चल दिया था। मुख्य सड़क पर आते ही हलवाइयों की दुकानों से उठती हुई गन्ध रह-रहकर उसके निश्चय के एकान्त में महकने लगी, पर वह विचलित नहीं हुआ। तभी संयोगवश असरार से उसकी भेंट हो गई जिसने बड़े जोरदार शब्दों में घूमने के लिए हिन्दू कॉलेज और खाने-पीने के लिए गूँगे की दुकान पर जाने की सिफारिश की और दुकान पर आकर सत्यव्रत को प्रसन्नता ही हुई।
मँजे हुए, साफ़-सुथरे पीतल के गिलास से दूध का एक घूँट भरते ही सत्यव्रत की आत्मा तृप्त होती चली गई। वास्तव में इतने अच्छे दूध की उसने आशा नहीं की थी। गूँगे की ईमानदारी पर उसे आन्तरिक खुशी हुई और इसीलिए पैसे देते वक़्त उसने दूध के गिलास की ओर इशारा करते हुए निर्विकार भाव से उसकी शुद्धता की तारीफ की। सोचा-लोग खामखा शहरों को बदनाम करते हैं कि वहाँ शुद्ध घी-दूध नहीं मिलता।
तभी गूँगा तड़पकर खड़ा हो गया। और सत्यव्रत के पैसोंवाले हाथ को पीछे करता हुआ ‘आँऽऽ आँऽऽ' करके अपनी चौड़ी-चकली छाती पर हाथ मारता हुआ बिजनौर जानेवाली रेलवे लाइन की ओर इशारा करने लगा।